
क्रियापरक शिक्षण (Activity Teaching)
क्रियापरक शिक्षण: प्राचीनकाल में शिक्षक का कर्त्तव्य इतना मात्र होता था कि वह केवल छात्रों को सूचना मात्र देता था, लेकिन वर्तमानकाल में ऐसा नहीं है। वर्तमानकाल के शिक्षण में पहले की अपेक्षा काफी अधिक परिवर्तन हुआ है। शिक्षक का दायित्व भी पहले की अपेक्षा बढ़ गया है।
बालक का शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक तथा तर्क शक्ति को विकसित करना आवश्यक है जिससे वह समाज में स्वयं को समाज में समायोजित कर सके। बालक के बहु-आयामी विकास के लिए करके सीखना– Learning by doing के सिद्धान्त पर शिक्षित करना चाहिए। जिससे बालकों को स्थायी ज्ञान प्रदान हो सके।
क्रियापरक शिक्षण का अर्थ (Meaning of Activity Teaching)
क्रियापरक शिक्षण का अभिप्राय ऐसे शिक्षण से है जिसमें क्रिया के माध्यम से ज्ञान प्रदान किया जाता है। इसमें छात्र अपनी स्वयं की क्रिया के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। छात्र यह क्रिया किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए करता है। इसमें छात्र का शरीर और मस्तिष्क दोनों कार्य करते हैं।
क्रियापरक शिक्षण की परिभाषा (Definition of Activity Method)
क्रियापरक शिक्षण के समर्थक हैं – कॉमेनियस, फ्रावेल, माण्टेसरी तथा किलपैट्रिक।
इन मनोवैज्ञानिको ने साधारण शिक्षण के स्थान पर क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया।
क्रियापरक शिक्षण की परिभाषा निम्नलिखित हैं –
कॉमेनियस (Comenious) के अनुसार: कॉमेनियस ने सबसे पहले इस बात का विरोध किया कि शिक्षक का कार्य केवल छात्रों तक सूचना पहुँचाने का है। उन्होंने कहा कि, “शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें बालक को क्रिया के माध्यम से ज्ञान प्रदान किया जाय।”
रूसो ने कहा: “यदि आप छात्र की बुद्धि का विकास करना चाहते हैं तो उस गति को विकसित करना चाहिए जिसे इसको नियन्त्रित करता है उसे बुद्धिमान तथा तार्किक बनाने के लिए बालक को स्वस्थ बनाइए।”
हैण्डसन (Handson) के अनुसार: हैण्डसन ने क्रिया शिक्षण को परिभाषित करते हुए लिखा है, “क्रिया सामाजिक तथा मानसिक होती है और चहलकदमी आत्म अभिव्यक्ति तथा आत्मक्रिया इसके अंग है। ” अर्थात् बालक जब स्वयं क्रिया करके ज्ञान प्राप्त करता है तो उसमें आत्माभिव्यक्ति तथा आत्मा-क्रिया जैसे गुणों का विकास होता है ।
क्रियापरक विधि का प्रयोग (Use of Activity Method)
इस विधि का प्रयोग कक्षा-कक्ष में किया जाता है तथा इसका साधन सामूहिक शिक्षण होता है। इस विधि का प्रयोग सभी विषयों के लिए किया जा सकता है तथा पाठ को एक निर्धारित सीमा में समाप्त किया जाता है। इसमें एक ही कक्षा के सम्पूर्ण छात्रों को एक ही कार्य कराया जाता है।
क्रियापरक विधि का प्रयोग उस समय किया जाता है, जब किसी विषय के शिक्षण में लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए छात्रों के द्वारा किसी प्रकार की क्रिया की जाती है।
क्रियापरक आधारित शिक्षण विधियाँ
क्रियापरक शिक्षण में अध्यापक के समक्ष यह समस्या बनी रहती है कि वह पाठ्यवस्तु को किस विधि से पढ़ाये कि बालक क्रियात्मक ढंग से सीखे शिक्षण विधि का चुनाव अध्यापक की कार्यकुशलता पर निर्भर करता है। क्रियापरक विधियों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है
अनुभव प्राप्ति से सम्बन्धित क्रियाएँ
इन क्रियाओं का उद्देश्य है बालकों द्वारा नये अनुभव प्राप्त करना। इन अनुभवों को किसी वस्तु का निरीक्षण करके, किसी औद्योगिक संस्थान को देखकर, किसी स्थान का भ्रमण करके प्राप्त किया जा सकते हैं।
ज्ञान प्राप्ति से सम्बन्धित क्रियाएं
इन क्रियाओं का मूल उद्देश्य छात्रों द्वारा अनेक तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करना है; जैसे— मोमबत्ती बनाने के लिए कौन-कौन से सामान की आवश्यकता होती है और इस सामान को कहाँ-कहाँ से प्राप्त किया जा सकता है।
ज्ञान प्रदान से सम्बन्धित क्रियाएँ
इन क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य है प्राप्त ज्ञान को व्यक्त करना; जैसे- किसी विषय पर वाद-विवाद करके किसी स्थान का मानचित्र बनाकर छात्र अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं।
कुछ कार्यात्मक शिक्षण विधियाँ निम्न प्रकार से हैं जिनकी सहायता से आसानी से ज्ञान प्रदान किया जा सकता है-
- खेल विधि (Playway Method)
- किण्डर गार्डन विधि (Kinder Garuen Method)
- माण्टेसरी विधि (Montessory Method)
- प्रोजेक्ट विधि (Project Method)
- डाल्टन विधि (Daltan Method)
क्रियापरक विधि के सिद्धान्त (Principles of Activity Teaching Method)
इसके निम्नलिखित सिद्धान्त है-
- क्रियापरक विधि आत्म स्वतन्त्रता के सिद्धान्त पर आधारित है। इसके अनुसार आत्म स्वतन्त्रता की प्राप्ति हेतु आत्मक्रिया करना आवश्यक है।
- इस विधि में छात्र का सर्वांगीण विकास उसकी स्वयं की क्रिया द्वारा ही होता है।
- यह विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित है।
- यह छात्र की क्रिया चेतना के चिन्तनात्मक, रुचि, संकल्पना तथा निर्णय तीनों स्तरों को प्रभावित करती है।
- इस विधि से छात्र सहज प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित होकर ज्ञान प्राप्त करते हैं।
- यह विधि अन्तर्निहित क्रिया के सिद्धान्त को प्रतिपादित करती है।
- इसके अनुसार समस्त प्राणियों में एक समान आन्तरिक क्रिया चलती रहती है जिसे वे अभिव्यक्त करना चाहते हैं।
क्रियापरक शिक्षण की विशेषताएँ (Characteristics of Activity Teaching)
क्रियापरक शिक्षण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-.
- शिक्षक बालकों को करके सीखने (Learning by doing) पर बल देते हैं।
- शिक्षण द्वारा बालकों को क्रियाशील बनाने का प्रयास किया जाता है।
- इस प्रकार के शिक्षण में बालक स्वयं ज्ञान अर्जित करता है।
- क्रियापरक शिक्षण में बालक स्वाभाविक क्रियाशीलता के सिद्धान्त का विकास करता है
- यह शिक्षण प्रायः बाल केन्द्रित है।
- इस प्रकार की शिक्षण विधि से बच्चों में थकान उत्पन्न हो जाती है।
- इस प्रकार के शिक्षण में व्यावसायिक कुशलता का विकास होता है।
- क्रियापरक शिक्षण में पुस्तकों का महत्त्व कम होता है।
- क्रियापरक शिक्षण में अध्यापक निर्देशक का कार्य करता है।
- इस शिक्षण द्वारा बालक का सन्तुलित विकास होता है।
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