बाल्यावस्था: जीवन का अनोखा काल (Childhood)

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Childhood (बाल्यावस्था)

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बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल

बाल्यावस्था (Childhood) 6-11 वर्ष या 12 वर्ष

मानव-विकास की दूसरी अवस्था बाल्यावस्था है। शैशवावस्था के पश्चात् बाल्यावस्था आती है। इस अवस्था में बालक में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं, जिन्हें अभिभावक और अध्यापक आसानी से नहीं समझ पाते। शैशवकाल में बालक के लिए संसार रहस्यमय होता है। उसका शरीर और मन दोनों अविकसित दशा में होते हैं, अतः वह प्रत्येक बात के लिए दूसरे पर निर्भर रहता है, परन्तु बाल्यावस्था में प्रवेश करने पर बालक आत्मनिर्भर होने लगता है।

“Childhood is the Unique Period of Life”.

Cole & Bruce

बाल्यावस्था का अर्थ (Meaning of Childhood)

सामान्यतः मनोवैज्ञानिकों ने 6 वर्ष से 12 वर्ष के बीच की अवस्था को बाल्यावस्था माना है। इस अवस्था में बालक के जीवन में स्थायित्व आने लगता है, और वह भावी जीवन की तैयारी करता है। 

हरलॉक के अनुसार – “उत्तरबाल्यावस्था, 6 वर्ष की आयु से लेकर यौवनारम्भ होने तक ग्यारह और बारह वर्षों के बीच होती है।

बाल्यावस्था में बालक में अनेक परिवर्तन होते हैं। शिक्षा आरम्भ करने के लिए यह आयु सर्वोत्तम है। शिक्षाविदों ने भी इसे प्रारम्भिक विद्यालय की आयु (Elementary School Age) कहा है। इस उम्र में सामाजिक सम्बन्ध कायम करने की भावना बालक-बालिकाओं में स्पष्ट दिखायी देती है। ये अपना-अपना समूह बनाते हैं। इसीलिए मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था को समूह की अवस्था (Gang Age) भी कहा है। कुछ मनोवैज्ञानिक इसे ‘चुस्ती की आयु’ (Smart Age) एवं गन्दी आयु (Dirty Age) भी कहते हैं।

बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ 

सर्वागीण विकास की दृष्टि से बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. बाल्यावस्था में शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता

बाल्यावस्था में शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। विकास की स्थिरता शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती है। बालक की चंचलता घटने लगती है, उसका मस्तिष्क परिपक्व दिखायी देने लगता है तथा वह प्रौढ़ों के समान व्यवहार करना चाहता है। जे० एस० रास (Ross) ने बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता (Pseudo Maturity) काल की संज्ञा दी।

2. बाल्यावस्था में मानसिक योग्यताओं में वृद्धि

बाल्यावस्था के दौरान बालक की मानसिक क्षमताओं में लगातार वृद्धि होती रहती है। संवदेना, प्रत्यक्षीकरण, स्मरण शक्ति का विकास द्रुतगति से होता है। स्थायी स्मृति में वृद्धि होती है।

3. आत्मनिर्भरता की भावना

बालक शैशवावस्था की भाँति बाल्यावस्था में दूसरों पर निर्भर नहीं होता। वह अपने दैनिक कार्य जैसे ब्रश करना, कपड़ा पहनना, विद्यालय के लिए तैयार होना आदि कार्य खुद कर लेता है। इस अवस्था में बालक में आत्मनिर्भरता की भावना विकसित होने लगती है।

4. रचनात्मक कार्यों में रूचि

इस अवस्था में बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है। जैसे बगीचे मे कार्य करना, लकड़ी, कागज या अन्य किसी वस्तु स कुछ बनाना। बालिकाएँ भी – घर में कोई न कोई रचनात्मक कार्य करती हैं; जैसे- सिलाई, कढ़ाई, बुनाई या रसोई घर का काम करना।

5. जिज्ञासा की प्रबलता (Intensity of Curiosity)

बालक जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है उन सबके विषय में जानना चाहता है। इस समय वह यह नहीं पूछता कि “यह क्या है?” बल्कि वह यह पूछता है कि “यह ऐसा क्यों है?” रॉस ने बालक की इस प्रवृत्ति के सम्बन्ध में कहा है-” उत्तर बाल्यावस्था में बालक ऐसी बातों के प्रति अत्यधिक जिज्ञासु होता है कि अमुक बातें कैसे होती है? अमुक चीज किस प्रकार कार्य करती है? इत्यादि।”

6. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता (Intensity of Gregariousness)

इस अवस्था में बालक में सामूहिक प्रवृत्ति प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ बिताना चाहता है। उसकी रूचि सामूहिक खेलों में अधिक होती है। बालक किसी न किसी समूह का सदस्य बन जाता है तथा उस समूह के सभी सदस्य मिलकर खेल खेलते हैं।

7. सामाजिक एवं नैतिक गुणों का विकास (Development of Social and Moral Qualities)

इस समय बालक अपने संगी-साथियों के साथ अधिक समय बिताता है। उसका व्यवहार दूसरों की प्रशंसा तथा निन्दा पर आधारित होता है। इसके फलस्वरूप उसमें अनेक सामाजिक तथा नैतिक गुणों जैसे—आज्ञापालन, सहयोग, सहनशीलता, ईमानदारी, सद्भावना, सहानुभूति, आत्मनियंत्रण, अनुशासन आदि का विकास होने लगता है।

स्ट्रैग (Strang) के अनुसार “छः सात और आठ वर्ष के बालकों में अच्छे-बुरे के ज्ञान एवं न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है।”

8. सामूहिक खेलों में विशेष रूचि (Interest in Group Play)

खेल इस अवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है। कार्लग्रूस (Karlgroos) के अनुसार, “खेलों द्वारा व्यक्ति अपने भावी जीवन की तैयारी करता है।” स्टेनले हॉल (Stanely Hall) के अनुसार, “बालकों के खेल उन कार्यों की पुनरावृत्ति है, जो सृष्टि के प्रारम्भ से उनके पूर्वज करते आये है।” इस उम्र में बालक बालकों के साथ और बालिकाएँ बालिकाओं के साथ खेलने में रूचि लेते हैं। उनमें सखा-भाव एवं सखी-भाव दिखायी देता है।

9. काम-प्रवृत्ति की न्यूनता (Lesser Sense of Sex)

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चे में जन्म से ही काम भावना विकसित होने लगती है। किन्तु बाल्यावस्था में स्वप्रेम तथा पिता व मातृ विरोधी काम ग्रन्थियाँ समाप्त हो जाती है, और बालक-बालिकाओं में समलिंगी प्रेम भावना का उदय होता है। 

10. संग्रह प्रवृत्ति का विकास (Development of Acquisition Tendency)

इस अवस्था में संग्रह करने की प्रवृत्ति भी जागृत होती है। बालक विशेष रूप से पुराने स्टैम्प बोलियाँ, खिलौने, मशीनों के पुर्जे, पत्थर के टुकड़े और बालिकाएँ खिलौने, गुडिया, कपड़ों के टुकड़े, चित्रों आदि का संग्रह करते हैं।

बाल्यावस्था में शिक्षा (Education During Childhood)

शिक्षा और विकास में घनिष्ठ सम्बन्ध है। शिक्षा विकास की प्रक्रिया है। बाल्यावस्था बालक के जीवन की महत्वपूर्ण अवस्था है। अतः यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है कि बालक के विकास के सभी पक्षों को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षा का स्वरूप निश्चित किया जाय। बालक की शिक्षा का उत्तरदायित्व माता-पिता, अध्यापक तथा समाज पर है।

बाल्यावस्था के दौरान बालक-बालिकाओं की शिक्षा व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातो का ध्यान रखना चाहिए-

1. बाल्यावस्था में शारीरिक विकास पर ध्यान

स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। अतः मानसिक विकास के लिए शारीरिक विकास पर ध्यान देना तर्कसंगत है। बालकों के उत्तम स्वास्थ्य के लिए उन्हें सन्तुलित और पौष्टिक भोजन देना चाहिए। अध्यापकों को चाहिए कि विद्यालयों में उन्हें खेल-कूद, व्यायाम आदि शारीरिक क्रियाओं का अवसर दें। 

2. बाल्यावस्था में बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षा

प्राचीन काल में शिक्षा अध्यापक की इच्छा से चलती थी। डण्डे के बल पर अनुशासन कायम किया जाता था। इच्छा न रहने पर भी बालक को पुस्तक की तरफ देखते रहना पड़ता था। ऐसी शिक्षा को अध्यापक-केन्द्रित शिक्षा कहते थे। 

जब मनोविज्ञान का शिक्षा में पर्दापण हुआ तो शिक्षा अध्यापक केन्द्रित से हटकर बाल केन्द्रित हो गयी। इस बाल केन्द्रित शिक्षा में बालक की रूचि, योग्यता और क्षमता पर ध्यान दिया जाने लगा। बाल मनोविज्ञान के अनुसार बालकों के लिए स्नेह व सहानुभूति पर आधारित शिक्षा-व्यवस्था उपर्युक्त है।

3. खेल तथा क्रिया द्वारा शिक्षा (Education through Play and Activity)

खेल और क्रियाशीलता बालकों की सहज एवं स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ है। आधुनिक शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने बालक की शिक्षा में खेल और क्रिया को प्रमुख स्थान दिया है। खेल द्वारा किया जाने वाला कार्य बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगिक विकास में सहायक है। खेल तथा क्रिया द्वारा बालक सरलता, सहजता, उत्साह तथा प्रसन्नता से नयी बातों को सीख लेते हैं।

4. रोचक पाठ्यक्रम (Curriculum Engaging Interest)

पाठ्यक्रम में ऐसे दर्शनों को रखना चाहिए जो बालकों की रूचि और आवश्यकता के अनुरूप हो तथा जीवन से सम्बन्धित हो। अनावश्यक दर्शनों और पुस्तकों का बोझ उन पर न लादा जाय, अन्यथा रटकर परीक्षा पास करने से उनका मानसिक विकास यथोचित ढंग से नहीं हो पायेगा।

5. भाषा विकास पर ध्यान (Attention on Language Development)

बाल्यावस्था में भाषा-विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए। बालकों के भाषा सम्बन्धी ज्ञान में वृद्धि के लिए उन्हें बातचीत करने, कहानियाँ सुनाने, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने, वाद-विवाद में भाग लेने, भाषण देने, कविता सुनाने, टेलीविजन देखने आदि का अवसर देना चाहिए।

6. मानसिक विकास पर ध्यान (Attention on Mental Development)

मानसिक विकास के लिए प्राकृतिक एवं शान्त वातावरण उपयुक्त है, अतः बाल्यावस्था में मानसिक विकास के लिए यथासम्भव अनुकूल वातावरण तैयार करना चाहिए। घर का और विद्यालय का वातावरण ऐसा होना चाहिए ताकि बालकों की विभिन्न मानसिक योग्यताओं प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, कल्पना, चिन्तन, तर्क आदि का विकास हो सके।

7. नैतिक शिक्षा (Moral Education)

नैतिक शिक्षा पढाने की चीज नहीं बल्कि सिखाने की चीज है। मेरे छात्र जीवन में नैतिकता सिखायी जाती थी परन्तु अब माध्यमिक विद्यालयों में नैतिक शिक्षा पढ़ायी जाती है, जो कि अनुचित है। बालकों को नैतिकता सिखानी चाहिए। इस अवस्था में बालक नैतिक मान्यताओं और नियमों में विश्वास करने लगता है। अतः इस अवस्था में नैतिक मूल्यों के विकास तथा सामाजिक मान्यताओं और नियमों में आस्था जागृत करने के लिए नैतिकता सिखाना आवश्यक है।

8. सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities)

बाल्यावस्था में परिवार के बाद मुख्य रूप से बालक का समाजीकरण विद्यालय में होता है, अतः अध्यापक का दायित्व है कि वह कक्षा, विद्यालय तथा खेल के मैदान में ऐसा वातावरण तैयार करे जिससे बालक का अनुकूल सामाजिक विकास हो। विद्यालय में ऐसे कार्यक्रम आयोजित किये जायें जिससे बालकों में अनुशासन, आत्मसंयम, उत्तरदायित्व, आज्ञाकारिता, विनम्रता, सहयोग, सहानुभूति आदि गुणों का विकास हो सके।

9. रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था (Arrangement of Constructive Work)

बालकों में रचनात्मक कार्य करने की प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही दिखायी देती है। जैसे मिट्टी और ईंटो से घरौंदा बनाना, लकड़ी के छोटे-छोटे गुटकों में कोई वस्तु बनाना आदि घर में तथा विद्यालय में छात्र-छात्राओं के लिए रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था करनी चाहिए। मिट्टी, लकड़ी, दफ्ती आदि के द्वारा अनेक प्रकार की वस्तुएँ बनवाकर छात्र-छात्राओं में रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए।

10. सामूहिक प्रवृत्ति की सन्तुष्टि (Satisfaction of Gregari ousness)

बाल्यावस्था में समूह मे रहने की प्रवृत्ति प्रबल होती है। वह अकेले रहना नहीं पसन्द करता। वह अन्य बालकों तथा मित्रों के साथ मिल-जुलकर रहना तथा उनके साथ कार्य करने में आनन्द का अनुभव करता है। अतः विद्यालय में बालसभा, स्काउट-गाइड, पर्यटन, नाटक, सरस्वती यात्राएँ, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि का आयोजन समय-समय पर करना चाहिए।

निष्कर्ष

शिक्षा की दृष्टि से बाल्यावस्था जीवन की महत्वपूर्ण अवस्था है, अतः इस काल के बालक के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास करने का दायित्व माता-पिता, अभिभावक एवं अध्यापकों का है। इस अवस्था में उन साधनों और तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए, जिससे बालक का सन्तुलित विकास हो सके तथा वह भावी जीवन के लिए तैयार हो सके।

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