किशोरावस्था: जीवन का सबसे कठिन काल, अर्थ, परिभाषाएँ, विशेषताएँ, शिक्षा में उपयोगिता

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किशोरावस्था

यह अवस्था 13 वर्ष से प्रारंभ होकर 21 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में बाँटा गया है—

(a) पूर्व-किशोरावस्था (Early Adolescence) (13-16 वर्ष)

(b) उत्तर-किशोरावस्था (Late Adolescence) (17-21 वर्ष)

 किशोरावस्था जन्म के उपरान्त शैशवावस्था और बाल्यावस्था के बाद मानव विकास की तीसरी अवस्था है, जो कि बाल्यावस्था की समाप्ति के उपरान्त शुरू होती है और प्रौढ़ावस्था के पूर्व समाप्त हो जाती है।

किशोरावस्था को जीवन का बसन्त काल कहा जाता है। यह अवस्था तूफान और झंझावत की अवस्था है, अतएव इस अवस्था का बारीकी से अध्ययन करना शिक्षक एवं शिक्षा मनोविज्ञान में रूचि रखने वालों की लिए परम आवश्यक है। ई. ए. किर्कपैट्रिक (E. A. Kirkpatric) का कथन है – “इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।” 

Table of Contents

किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त

किशोरावस्था में बालकों और बालिकाओं में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त प्रचलित हैं –

1. आकस्मिक विकास का सिद्धान्त (Theory of Saltatory Development)

2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त (Theory of Gradual Development)

1. आकस्मिक विकास का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के समर्थक स्टेनले हॉल (Stanley Hall) है। इन्होने 1904 में अपनी ‘एडोलेसेन्स’ (Adolescence) नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें इन्होने लिखा कि किशोर में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे एकदम होते हैं और उनका पूर्व अवस्थाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। स्टेनले हॉल के अनुसार– “किशोर में जो शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं, वे अकस्मात् होते हैं।”

2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के समर्थकों में किंग, थार्नडाइक और हालिंगवर्थ (Hollingworth) प्रमुख हैं। इन विद्वानों का मत है कि किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन निरन्तर और क्रमशः होते हैं। किंग के अनुसार -“जिस प्रकार एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के अन्त में होता है, पर जिस प्रकार पहली ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के चिह्न दिखाई देने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था एक-दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं।” 

किशोरावस्था को मनोवैज्ञानिको द्वारा इस प्रकार परिभाषित किया गया है –

स्टेनले हाल के अनुसार– “किशोरावस्था बड़े संघर्ष तूफान तथा विरोध की अवस्था है।”

ब्लेयर, जोन्स, सिम्पसन के अनुसार – “किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का वह काल है, जो बाल्यावस्था के अन्त में प्रारम्भ होता है तथा प्रौढ़ावस्था के प्रारम्भ में समाप्त होता है।”

कुल्हन के अनुसार– “किशोरावस्था बाल्यकाल तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का संक्रान्ति काल है।”

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ (Characteristics of Adolescence)

किशोरावस्था को दबाव, तनाव एवं तूफान की अवस्था माना गया है। इस अवस्था की विशेषताओं को एक शब्द ‘परिवर्तन’ (Change) में व्यक्त किया जा सकता है। बिग व हण्ट के शब्दों में – “किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से व्यक्त करने वाला एक शब्द है- ‘परिवर्तन’ । परिवर्तन- शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक होता है।” 

चलिए किशोरावस्था की विशेषताओं को देखते है –

1. शारीरिक विकास (Physical Development)

किशोरावस्था में अनेक तरह के महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन होतें हैं। इस काल में शारीरिक दृष्टि से यौवनारम्भ के लक्षण प्रकट होते हैं। इस उम्र में किशोरियाँ स्त्रीत्व को तथा किशोर पुरुषत्व को प्राप्त करते हैं। किशोरों में दाढ़ी-मूँछ दिखने लगता है। किशोरियों के वक्षस्थल की गोलाई बढ़ने लगती है और मासिक स्राव शुरू हो जाता है। किशोर और किशोरियों के गुप्तांगों पर बाल निकल आते हैं। किशोर स्वस्थ, सबल तथा उत्साही बनने का प्रयास करते हैं, जबकि किशोरियाँ नारी-सुलभ आकर्षण प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं।

2. मानसिक विकास (Mental Development)

किशोरावस्था में शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक क्षमता में वृद्धि होने लगती है। कल्पना: स्मृति दिवास्वप्नों की बहुलता, तर्कशक्ति निर्णय लेने की क्षमता किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ हैं। वे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं में रूचि लेने लगते है।

3. स्थायित्व एवं समायोजन का अभाव (Lack of Stability and Adjustment)

इस अवस्था में किशोर-किशोरियों की मनःस्थिति शिशुओं की भाति अस्थिर हो जाती है। रॉस (Ross) ने किशोरावस्था को शैशवावस्था की पुनरावृत्ति (Recapitulation) कहा है। इस समय उसमें इतनी तेजी से परिवर्तन होते है कि किशोर-किशोरियों का व्यवहार उद्विग्न सा रहता है। उनकी मनोदशा अस्थिर होती है, परिणामस्वरूप वह वातावरण से समायोजन में कठिनाई महसूस करता है।

4. व्यवहार में विभिन्नताएँ (Differences in Behaviour)

किशोर किशोरियों में संवेगों की प्रबलता होती है। संवेगात्मक आवेश में वह असम्भव एवं असाधारण कार्य करने का संकल्प कर डालता है। कभी वह अदम्य उत्साह से भरा होता है, कभी वह बहुत हतोत्साहित दिखायी देता है।

5. काम भावना का विकास (Development of Sex Instinct)

किशोरावस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता काम भावना का प्रबल होना है। रॉस (Ross) के विचार से- “काम समस्त जीवन का नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तथ्य है ……. एक विशाल नदी के अंति प्रवाह के समान यह जीवन की भूमि के बड़े भागों को सींचता है एवं उपजाऊ बनाता है।”

“Sex is the fundamental fact of adolescence, if not all life, like the overflow of the great river, it irrigates and fertilizes great tracks of life’s territory.” J.S. Ross

6. कल्पना का बाहुल्य (Exuberance of Imagination)

किशोरावस्था में कल्पना का बाहुल्य होता है। दैनिक जीवन में किशोर अपनी सारी इच्छाओं को पूरा करने में खुद को अक्षम पाता है। परिणामस्वरूप अपनी इच्छाओं की पूर्ति वह वास्तविक जगत में न करके कल्पना जगत में करता है। वह छोटी-छोटी बातों को लेकर कल्पना में डूब जाता है। कल्पना की बहुलता के कारण किशोरावस्था में दिवास्वप्न (Day – Dream) देखने की प्रवृत्ति होती है। कल्पना की बहुलता के कारण किशोर कभी-कभी असामाजिक और अनैतिक व्यवहार करने लगते हैं। कभी-कभी कल्पना और दिवा स्वप्नों के कारण किशोर कवि, कलाकार, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, चित्रकार एवं संगीतज्ञ बनते है।

7. विषमलिंगीय आकर्षण (Hetero Sexual Attraction)

विषमलिंगीय के प्रति आकर्षण इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है। किशोर और किशोरियों में एक दूसरे के प्रति प्रबल आकर्षण होता है। वे एक दूसरे से मिलने के लिए सामाजिक बन्धनों पर आघात पहुँचाना चाहते हैं। इस अवस्था में प्रत्येक लड़का किसी लड़की से और प्रत्येक लड़की किसी लड़के से प्यार करने लगते हैं। वे परस्पर मिलने-जुलने, बातचीत करने, घूमने टहलने तथा साथ-साथ रहने की इच्छा रखते हैं।

8. समाज-सेवा की भावना (Feeling of Social Service)

शैशवावस्था की स्वार्थ भावना किशोरावस्था में परोपकार भावना का रूप ले लेती है। इस अवस्था में त्याग तथा परोपकार की भावना प्रबल होती है। देश समाज अथवा मित्र मंडली के लिए किशोर-किशोरियों जान की बाजी लगाने के लिये तैयार हो जाते हैं। विश्व इतिहास इस बात का साक्षी है कि किशोरों ने परोपकार की भावना से प्रेरित होकर देश और समाज के लिए और उसकी बुराइयों को दूर करने के लिए मृत्यु तक की चुनौती दे दी।

9. अपराध प्रवृत्ति का विकास (Development of Delinquency)

इच्छापूर्ति में बाधा, निराशा, असफलता, प्रेम का अभाव, नवीन अनुभवों की ललक आदि के कारण किशोरावस्था में अपराध प्रवृत्ति की भावना विकसित होने लगती है। वास्तव में किशोरावस्था नाजुक अवस्था होती है।

वैलेण्टाइन (Valentine) के अनुसार– किशोरावस्था अपराध-प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है। पक्के अपराधियों की एक विशाल संख्या किशोरावस्था में अपने व्यावसायिक जीवन को गम्भीरतापूर्वक आरम्भ करती है।”

10. रूचियों में परिवर्तन (Changes in Interests)

किशोरावस्था में शारीरिक और मानसिक परिवर्तन के साथ-साथ रूचियों में भी लगातार परिवर्तन होता रहता है। किशोर-किशोरियों के रूचियों में कुछ समानताएँ तथा कुछ भिन्नताएँ भी पायी जाती हैं। दोनों में पत्र-पत्रिकाओं, कहानियाँ, नाटक, उपन्यास पढ़ना, संगीत, कला, अभिनय में भाग लेना, सिनेमा देखना, टेलीविजन देखना रेडियो सुनना, अपने शरीर को सुन्दर बनाने का प्रयास करना आदि प्रवृत्तियाँ पायी जाती है। विषमलिंगी की ओर आकर्षित होना किशोरों-किशोरियों की रूचियाँ होती हैं।

11. घनिष्ठ व व्यक्तिगत मित्रता (Fast Friendship) 

किसी समूह का सदस्य होते हुए भी किशोर केवल एक या दो बालकों को ही अपना सच्छा मित्र मानता है, और जिनसे वह अपनी समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से बातचीत करता है। वेलेनटीन के अनुसार – “घनिष्ट और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर-किशोरावस्था की विशेषता है।”

12. समूह को महत्व (Importance to Group) 

किशोर जिस समूह का सदस्य होता है, उसको वह अपने परिवार और विद्यालय से अधिक महत्व देता है। यदि उसके माता-पिता और समूह के दृष्टिकोणों में अन्तर होता है, तो वह समूह के ही दृष्टिकोणों को श्रेष्ठतर समझता है और उन्हीं के अनुसार अपने व्यवहार, रुचियों, इच्छाओं आदि में परिवर्तन करता है। बिग एवं हण्ट के अनुसार – “जिन समूहों से किशोरों का सम्बन्ध होता है, उनसे उनके लगभग सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र पहनने की आदतों और भोजन करने की विधियों को प्रभावित करते हैं।”

13. ईश्वर व धर्म में विश्वास (Faith in God and Religion)

किशोरावस्था के आरम्भ में बालकों को धर्म और ईश्वर में आस्था नहीं होती है। इनके सम्बन्ध में उनमें इतनी शंकायें उत्पन्न होती हैं कि वे उनका समाधान नहीं कर पाते हैं। पर धीरे-धीरे उनमें धर्म में विश्वास उत्पन्न हो जाता है और वे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने लगते हैं।

14. जीवन-दर्शन का निर्माण (Formation of Philosophy of Life)

किशोरावस्था से पूर्व बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछता है। किशोर होने पर वह स्वयं इन बातों पर विचार करने लगता है और फलस्वरूप अपने जीवन-दर्शन का निर्माण करता है। वह ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण करना चाहता है, जिनकी सहायता से वह अपने जीवन में कुछ बातों का निर्णय कर सके। इसे इस कार्य में सहायता देने के उद्देश्य से ही आधुनिक युग में युवक आन्दोलनों’ (Youth Movements) का संगठन किया जाता है।

15. स्थिति व महत्व की अभिलाषा (Will of Status and Importance)

किशोर में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और प्रौढ़ों के समान निश्चित स्थिति (Status) प्राप्त करने को अत्यधिक अभिलाषा होती है। ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन (Blair, Jones and Simpson) के शब्दों में – “किशोर महत्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थिति प्राप्त करना और श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहता है।”

16. व्यवसाय का चुनाव (Selection of Profession)

किशोरावस्था में बालक अपने भावी व्यवसाय को चुनने के लिए चिन्तित रहता है। इस सम्बन्ध में स्ट्रेंग (Strang) का कथन है-“जब छात्र हाई स्कूल में होता है, तब वह किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने और उसमें उन्नति करने के लिए। अधिक-ही-अधिक चिन्तित होता जाता है।”

स्टेनले हॉल के अनुसार– “किशोरावस्था एक नया जन्म है, क्योंकि इसी में उच्चतर और श्रेष्ठतर मानव विशेषताओं के दर्शन होते हैं।”

किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

शैक्षिक दृष्टि से किशोरावस्था अति महत्वपूर्ण है, अतः किशोरों के भावी जीवन के निर्माण में अध्यापकों एवं शिक्षा मनोविज्ञान में रूचि रखने वालों के लिए यह आवश्यक है कि उनके लिए उपयुक्त शिक्षा और मार्ग निर्देशन की व्यवस्था करें वैलेण्टाइन के अनुसार– “मनोवैज्ञानिकों द्वारा बहुत समय तक उपदेश दिये जाने के बाद अन्त में यह बात व्यापक रूप से स्वीकार की जाने लगी है कि शैक्षिक दृष्टि से किशोरावस्था का अत्यधिक महत्व हैं।”

1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Physical Development)

किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन बहुत तेजी से होता है इसलिए शरीर को स्वस्थ, सबल, व सुडौल बनाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उनके लिए पौष्टिक भोजन, स्वास्थ्य-शिक्षा, शारीरिक व्यायाम तथा खेलकूद का उचित प्रबन्ध करना आवश्यक है। किशोरों में व्यायाम तथा खेलकूद जैसे कसरत, कुश्ती, फुटबाल, हॉकी, बालीवाल, कबड्डी, तैरना आदि व्यायाम से उनका शारीरिक स्वास्थ्य उत्तम बनता है एवं साथ ही अच्छी आदतों का निर्माण और विकास होता है। स्वस्थ शारीरिक विकास पर ही उनके अन्य पक्षों का विकास आधारित है। किशोरों को भ्रमण, यात्रा, पिकनिक एवं प्रकृति निरीक्षण का भी अवसर देना चाहिए।

2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Mental Devleopment)

किशोरावस्था में मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम व सर्वागीण विकास करने हेतु उत्तर शिक्षा-व्यवस्था करनी चाहिए। किशोरों की मानसिक क्षमता, निरीक्षण शक्ति, तर्कशक्ति, चिन्तन शक्ति, स्मरण शक्ति, कल्पना शक्ति का विकास उसकी रूचियों, रूझानों, योग्यताओं एवं क्षमताओं को दृष्टिगत रखकर करना चाहिए। इसके लिए निम्न तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए –

  • पाठयक्रम में विज्ञान, साहित्य, गणित, भूगोल तथा विद्यालय के पाठ्य विषयान्तर विषयों को रखना चाहिए।
  • किशोरों की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए तथा निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए पाठ्यक्रम के अलावा प्राकृतिक और ऐतिहासिक स्थानों पर पर्यटन हेतु ले जाना चाहिए।
  • विद्यालय में वाचनालय, पुस्तकालय, संग्रहालय, प्रयोगशाला आदि का उत्तम व्यवस्था करनी चाहिए। 
  • मानसिक विकास का भाषा विज्ञान से नजदीकी सम्बन्ध होता है, अतः विद्यालय में शुद्ध बोलने तथा सुलेख का अभ्यास करना चाहिए। 
  • किशोरों की रूचियों, कल्पनाओं, दिवास्वप्नों एवं भावुकता का लाभ उठाकर उसे साहित्य, संगीत, कला आदि की तरफ लगाया जाना चाहिए।

3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा (Education for Emotional Development)

किशोरावस्था में संवेगात्मक जीवन में उथल-पुथल सी मच जाती है। किशोर पूर्व-विकसित स्थायी भावों तथा नयी-नयी उमंगों और संवेगो पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस करते हैं। वह तमाम तरह के संवेगों से संघर्ष करते रहते हैं। 

इस उम्र में शिक्षा द्वारा निकृष्ट व दुःखद संवेगों को दबाने अथवा मार्गान्तरीकरण करने एवं उत्तम संवेगों का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। संवेगात्मक विकास के लिए निम्न तथ्यों को दृष्टिगत रखना चाहिए – 

  • मूल प्रवृत्तियों एवं संवेगों का शोधन (Sublimation) करने की शिक्षा दी जाय। सवेगों को प्रशिक्षित करने की यह सर्वोत्तम विधि है। इसके लिए किशोरों में संगीत, साहित्य, कला एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रति रूचि उत्पन्न करनी चाहिए।
  • नैतिक और धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ अनुकूल पर्यावरण प्रदान करना चाहिए ताकि किशोरों का चारित्रिक विकास हो सके। 
  • संवेगात्मक शिक्षा के लिए शिक्षकों को किशोरों के संवेगों की जानकारी करना चाहिए।

4. सामाजिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Social Development)

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जन्म से मृत्यु तक मनुष्य समाज में ही रहता है। शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य सामाजिक भावना का विकास करना है। समाज से उत्तम समायोजन के लिए पाठय विषयान्तर कार्यक्रम, खेलकूद, स्काउटिंग, विद्यालय का वातावरण, पत्र-पत्रिकाओं आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।

5. धार्मिक तथा नैतिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Religious and Moral Development)

नैतिक विकास के लिए किशोरों के सम्मुख अच्छे आदर्श, व्यवहार एवं अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करना चाहिए। रॉस (Ross) के अनुसार– “नैतिक चरित्र का उच्चतम विकास तब होता है जबकि व्यवहार सामाजिक प्रशंसा अथवा दोष से नहीं वरन आदर्शों से निर्देशित होता है।”

6. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा (Education According to Individual Diffence)

किशोरावस्था में किशोरों की शिक्षा के लिए विद्यालयों में उनकी रूचि, रूझान, क्षमता एवं योग्यता के अनुसार अनेक प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए। किशोरावस्था में किशारों की व्यक्तिगत विभिन्नताएँ तथा आवश्यकताएँ शैक्षिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होतो है। विद्यालयों में शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि वे अपनी एवं आवश्यकताओं के अनुसार पाठयक्रम का चयन कर सकें।

7. यौन शिक्षा (Sex Education)

मनोवैज्ञानिक रॉस ने लिखा है कि काम समस्त जीवन का नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तथ्य है, एक विशाल नदी के अति प्रवाह के समान यह जीवन की भूमि के बड़े भागों को सींचता है एवं उपजाऊ बनाता है।”

किशोरावस्था में यौन शिक्षा की महत्ता रॉस के कथन से स्पष्ट हो जाती है। वास्तव में किशोर-किशोरियों की अधिकांश समस्याओं का सीधा सम्बन्ध उनकी काम प्रवृत्ति से होता है। भारतीय परिवारों में काम को एक वर्जित दर्शन माना जाता है। इस सम्बन्ध में जानकारी करने में लज्जा व संकोच महसूस किया जाता है, इसीलिए भारतीय परिवेश में किशोर-किशोरियों को शिक्षा प्रदान करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। उचित शिक्षा से काम प्रवृत्ति को उचित दिशा दी जा सकती है।

8. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार (Sympathetic Behaviour)

किशोरावस्था में तमाम तरह के परिवर्तन के कारण किशोर हर समय किसी न किसी समस्या से उलझन में रहता है। उसकी कठिनाइयों और समस्याओं के लिए माता-पिता और अध्यापक को किशोरों के साथ सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करना चाहिए।

9. पूर्व- व्यावसायिक शिक्षा (Pre-Occupational Education)

किशोर अपने भावी जीवन में किसी-न-किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है। पर वह यह नहीं जानता है कि कौन-सा व्यवसाय उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त होगा। उसे इस बात का ज्ञान प्रदान करने के लिए विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारम्भिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुउद्देशीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई है।

10. जीवन-दर्शन की शिक्षा (Education for Philosophy of Life)

किशोर अपने जीवन-दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है -“किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में सहायता देने का महान् उत्तरदायित्व विद्यालय पर है।”

11. बालकों व बालिकाओं के पाठ्यक्रम में विभिन्नता (Differentiation in Curriculum of Boys and Girls)

बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होना अति आवश्यक है। इसका कारण बताते हुए बी. एन. झा ने लिखा है – “लिंग-भेद के कारण और इस विचार से कि बालकों और बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी, चाहिए।”

12. उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग (Use of Proper Methods of Teaching)

किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे शिक्षा देने के लिए परम्परागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके लिए किस प्रकार की शिक्षण विधियाँ उपयुक्त हो सकती हैं, इस सम्बन्ध में रॉस का मत है -“विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से किया जाना चाहिए और उनका दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिए।”

13. किशोर के प्रति वयस्क का-सा व्यवहार (Adult Type Behaviour towards Adolescence)

किशोर को न तो बालक समझना चाहिए और न उसके प्रति बालक सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, उसके प्रति वयस्क सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसका कारण बताते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है – “जिन किशोरों के प्रति वयस्क का-सा जितना ही अधिक व्यवहार किया जाता है, उतना ही अधिक वे वयस्कों का-सा व्यवहार करते हैं।”

14. किशोर के महत्व को मान्यता (Recognition of Adolescence)

किशोर में उचित महत्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। उसकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए, उसे उत्तरदायित्व के कार्य दिये जाने चाहिए।

निष्कर्ष

किशोरावस्था, जीवन का सबसे कठिन और नाजुक काल है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है, उसी दिशा में वह जीवन में आगे बढ़ता है। 

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