शैशवावस्था: जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल – Infancy

Sharing is caring!

Infancy-The-Most-Important-Period-of-Life
Infancy: The Most Important Period of Life

Table of Contents

शैशवावस्था (Infancy) जन्म से 5 वर्ष या 6 वर्ष।

शैशावावस्था बाल विकास की पहली अवस्था है, मनोवैज्ञानिक बालक और उसके विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन करते इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सभी अवस्थाओं में शैशावावस्था का सबसे अधिक महत्व है। मनोवैज्ञानिक न्यूमैन (J. Newman) के अनुसार – “पांच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है।” शैशवकाल में जो कुछ भी सिखाया जाता है, उसका प्रभाव तत्काल पड़ता है। 

मनोविश्लेषण सिद्धांत के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड के अनुसार – “मनुष्य को जो कुछ बनना होता है, प्रारम्भ के चार-पांच वर्षों में ही बन जाता है।”

“The little human being is frequently or finished produce in his fourth or fifth year” – Freud.

एडलर (Adler) ने कहा है – “शैशवावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित होता है।”

20वीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिकों ने बालक और उसके विकास की अवस्थाओं का विस्तृत और गम्भीर अध्ययन किया है। 

क्रो व क्रो के अनुसार – “बीसवीं शताब्दी बालक की शताब्दी है।”

मनोवैज्ञानिकों के इन विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस अवस्था में बालक के भावी जीवन का निर्माण होता है।

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ (Chief Characteristics of Infancy)

सर्वांगीण विकास की दृष्टि से शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है –

1. शैशवावस्था मे शारीरिक विकास की तीव्रता

बालक के जीवन के प्रथम तीन वर्षों में शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है। लम्बाई तथा भार में तीव्र वृद्धि होती है। शरीर के अन्य अंगों व मांसपेशियों का भी विकास तीव्र गति से होता है।

2. शैशवावस्था मे अपरिपक्वता

इस अवस्था में शिशु शारीरिक तथा बौद्धिक रूप से अपरिपक्व होता है। स्वाभाविक रूप से वह धीरे-धीरे पालन-पोषण द्वारा परिपक्व होता है।

3. मानसिक क्षमताओं में तीव्रता

शैशवावस्था में शिशु की मानसिक क्षमताओं जैसे ध्यान, स्मरण, कल्पना, संवेदना, प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में तीव्रता रहती है। गुडएनफ के अनुसार – “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।”

4. सीखने में तीव्रता

शिशु के सीखने की गति अत्यन्त तीव्र होती है। गेसेल (Gesell) के अनुसार – बालक प्रथम छः वर्षों में, बाद के बारह वर्षों से दूना सीख लेता है।”

5. दोहराने की प्रवृत्ति (Tendency of Repetition)

इस अवस्था में शिशु में शब्दों के दोहराने की विशेष प्रवृत्ति होती है। ऐसा करने में उन्हें आनन्द आता है।

6. जिज्ञासा प्रवृत्ति (Curiosity Tendency)

शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति अधिक होती है। छोटा शिशु खिलौनों तथा अन्य वस्तुओं को फेंककर, उसके भागों को अलग-अलग करके अपनी जिज्ञासा को शान्त करता है। बड़ा शिशु अपने से अधिक आयु के बालकों से विभिन्न वस्तुओं तथा बातों के संबंध में तरह-तरह के प्रश्न पूछता है।

7. परनिर्भरता (Dependence on Others)

जन्म के उपरान्त कुछ समय तक शिशु असहाय रहता है। वह भोजन व अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के साथ-साथ प्रेम, सहानुभूति तथा सुरक्षा के लिए अन्य लोगों पर आश्रित रहता है। वह मुख्य रूप से अपनी माँ पर आश्रित रहता है।

8. स्वप्रेम की भावना (Feeling of Self Love)

शैशवावस्था में शिशु के अन्दर स्वप्रेम की भावना अत्यन्त प्रबल होती है। वह सभी का स्नेह पाना चाहता है। वह चाहता है कि केवल उसे ही माता-पिता, भाई-बहन आदि का प्यार मिले। वह अपने अलावा अन्य व्यक्तियों से प्रेम किये जाने पर उनसे ईर्ष्या करने लगता है। उसमें अधिकार की तीव्र भावना रहती है। वह प्रत्येक वस्तु पर अपना अधिकार चाहता है। जो वस्तु या खिलौना उसे दिया जाता है, उसे वह दूसरों को न देकर अपने पास ही रखना चाहता है।

9. संवेगों का प्रदर्शन (Emotional Expression) 

शिशु जन्म से ही संवेगात्मक व्यवहार का प्रदर्शन करता है। रोना, चिल्लाना, हाथ-पैर पटकना आदि क्रियायें संवेगपूर्ण ही होती हैं। बाल मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में शिशु में मुख्य रूप से चार संवेग-भय, क्रोध, प्रेम, पीड़ा आदि पाये जाते हैं।

10. सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feeling)

शैशवावस्था के प्रारंम्भिक वर्षों में शिशु में सामाजिक भावना का अभाव रहता है। छोटा शिशु अकेले ही खेलना चाहता है। परन्तु शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु में सामाजिक भावना का विकास होने लगता है।

वैलेन्टाइन (Valentine) के अनुसार – “चार या पाँच वर्ष के बालकों में अपने छोटे भाई-बहनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह दो से पाँच वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपनी वस्तुओं में दूसरों को साझीदार बनाता है। वह दूसरे बच्चों के अधिकारों की रक्षा करता है और दुःख में उनको सान्त्वना देने का प्रयास करता है।”

11. मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार (Instinetive Behaviour)

इस अवस्था में बच्चे का अधिकांश व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है। भूख लगने पर वह रोता, क्रोधित होता है और जो भी वस्तु उसके पास होती है, उसी को मुँह में डाल लेता है।

12. काम प्रवृत्ति (Sex Instinct)

फ्रायड के अनुसार – शैशवावस्था में काम प्रवृत्ति होती है किन्तु शिशु उसकी अभिव्यक्ति वयस्कों के सामने नहीं कर पाता माँ का स्तनपान करना, हाथ-पैर के अंगूठे चूसना आदि शिशु की काम प्रवृत्ति के सूचक है।

13. नैतिक भावना का अभाव (Absence of Moral Feelings)

इस अवस्था में शिशु का नैतिक विकास नहीं हो पाता है। उसे अच्छी बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। शिशु वही कार्य करता है जिसमें उसे आनन्द आता है भले ही वह कार्य अनैतिक हो।

शैशवावस्था में शिक्षा (Education during Infancy)

शैशवावस्था का मानव जीवन में शैक्षिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। वैलेन्टाइन ने इसे “सीखने का आदर्शकाल” (Ideal Period of Learning) कहा है। 

वाटसन के अनुसार – “शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता, विकास की और किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है।” 

“The Scope and intensity of learning during infancy exceeds that of any other period of development.” – Watson 

शैशवावस्था में शिशु शिक्षा का आयोजन करते समय निम्नांकित बातों पर ध्यान देना चाहिए – 

1. पालन-पोषण (Nurture)

शैशवावस्था में शारीरिक विकास का भावी जीवन के लिए बड़ा महत्व होता है। शारीरिक और मानसिक विकास के लिए पौष्टिक एवं संतुलित भोजन परम आवश्यक है। अतः शिशु के पालन-पोषण में पूरी सावधानी रखनी चाहिए और यथाशक्ति पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए।

2. अनुकूल वातावरण (Favourable Environment)

शान्त और स्वस्थ वातावरण में ही बालक का बहुमुखी विकास हो सकता है, अतः घर और विद्यालय के वातावरण का अनुकूल होना आवश्यक है। अनुकूल वातावरण के अतिरिक्त उन परिस्थितियों की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे बालक अपने को सुरक्षित और प्रफुल्लित महसूस कर सके।

3. वात्सल्यपूर्ण व्यवहार (Affectionate Behaviour)

माता-पिता, अभिभावक और अध्यापक का कर्तव्य है कि वे शिशु के साथ यथा सम्भव स्नेहयुक्त और वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करे। शैशवावस्था जीवन की महत्वपूर्ण अवस्था है। शिशुओं को बात-बात पर डाँटना या पीटना नहीं चाहिए और उनकी आवश्यकताओं की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

4. उत्तम आदतों का निर्माण (Formation of Good Habits)

शिशु में यथासम्भव अच्छी आदतें डालने का प्रयास करना चाहिए। अध्यापक और अभिभावक को चाहिए कि वे शिशु को बड़ों का आदर करना, गुरूजनों की आज्ञा का पालन करना, सच बोलना, समय पर काम करना आदि अच्छी आदतों को सिखायें। यही अच्छी आदतें ही उसके भावी जीवन का निर्माण करती हैं।

5. मानसिक क्रियाओं के अवसर

इस अवस्था में बालक मानसिक दृष्टि से पूर्ण विकसित नहीं होता, अतः बालक की मानसिक क्षमता के अनुसार ही उसे कार्य सौंपना चाहिए। बालक की आयु और मानसिक क्षमता को दृष्टिगत रखते हुए ही शिक्षण करना चाहिए।

6. जिज्ञासा की संतुष्टि (Satisfaction of Curiosity)

इस अवस्था में शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति अधिक होती है। वह सदा अपने निकटवर्ती वातावरण के बारे में जानकारी की इच्छा रखता है, और उसके बारे में प्रश्न करता है, अतः अध्यापकों और अभिभावकों का दायित्व है कि वे शिशु द्वारा किये गये प्रश्नों का सही उत्तर देकर उसकी जिज्ञासा को शान्त करें। 

7. करके सीखने की महत्ता

शिशुओं को करके सीखने का अवसर प्रदान करना चाहिए। करके सीखा हुआ ज्ञान स्थायी होता है। शिशुओं का स्वभाव चंचल होता है, अतः वह करके सीखने में आनन्द का अनुभव करते हैं।

8. व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences)

व्यक्तिगत भिन्नता जन्मजात गुण है। शिशु को शिक्षा प्रदान करते समय उनकी व्यक्तिगत भिन्नताओं पर ध्यान देना चाहिए।

9. वार्तालाप के अवसर (Opportunities for Conversation)

वार्तालाप भाषा विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। माता-पिता और अध्यापकों को शिशुओं को छोटी-छोटी कहानियाँ एवं कविताएँ सुनाने और याद करने का अवसर देना चाहिए। वार्तालाप द्वारा अपने विचारों एवं भावों को व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।

10. शिक्षा में संगीत का स्थान (Place of Music in Education)

शिशु आरम्भ से ही संगीत प्रिय होता है। शिशु विद्यालय में शिक्षा कार्य के लिए गीतों का प्रयोग करना आवश्यक है। गीतों की सहायता से शारीरिक व मानसिक विकास होता है।

CTET GET FREE PRACTICE SET

Read More…

Sharing is caring!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *