वाणिज्य (commerce) में लेखांकन की शब्दावली जानना बहुत ही महत्वापूर्ण हो जाता है यही आप 1st Grade, Co-operative Bank, Jr. Accountant NTA-net, C.A. Foundation, UP TGT, PTG etc., Exam की तयारी कर रहे है तो, दोस्तों चलिए देखते है लेखांकन की शब्दावली-

ACCOUNTANCY (लेखाशास्त्र) महत्वपूर्ण शब्दावली
बहीखाता तथा लेखाकर्म में कुछ शब्दों का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में किया जाता है। अतः बहीखाता तथा लेखाकर्म के नियमों का भली-भांति अध्ययन तथा पालन करने के लिए इनमें प्रयुक्त की जाने वाली निम्न महत्वपूर्ण अवधारणाओं (concepts) का ठीक-ठीक अर्थ जानना आवश्यक है तो चलिए देखते है-
1. (a) व्यवसाय (Business)
‘व्यवसाय’ से आशय उन वैध मानवीय आर्थिक क्रियाओं से है जो लाभार्जन के उद्देश्य से वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन, वितरण तथा विनिमय के लिए की जाती है तथा जो (क्रियाएँ) निजी और सार्वजनिक संस्थाओं के माध्यम से स्वतन्त्रतापूर्वक एवं बार-बार की जाती है। ‘व्यवसाय’ एक विस्तृत अवधारणा है जिसके अंग है-
- व्यापार (Trade)
- वाणिज्य (Commerce)
- उद्योग (Industry)
- प्रत्यक्ष सेवाएं (Direct Services)
(b) व्यवसायी (Businessman)
जो व्यक्ति पूंजी लगाकर कोई व्यवसाय प्रारम्भ करता है, व्यवसाय की देखभाल करता है तथा व्यवसाय का जोखिम उठाता है, वह ‘व्यवसाय’ कहलाता है।
(c) उद्योग (Industry)
‘उद्योग’ से आशय ऐसे व्यावसायिक ग्रह से है जहाँ वस्तुओं का उत्पादन या विनिर्माण (manufacturing) होता है। उद्योगों में तीन प्रकार का माल तैयार होता है-
- पूँजीगत वस्तुएँ
- उपभोक्ता वस्तुएँ
- मध्यवर्ती वस्तुएं
2. (a) व्यापार (Trade)
‘व्यापार’ से तात्पर्य लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं तथा सेवाओं के वैध क्रय-विक्रय से है। ग्राहकों को वस्तुएँ या तो प्रत्यक्ष रूप से अथवा मध्यस्थों की सहायता से परोक्ष रूप से बेची जा सकती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि किसी व्यापार को प्रारम्भ करने का उद्देश्य तो लाभ कमाना होता है किन्तु व्यापारी के प्रयासों का परिणाम हानि भी हो सकता है।
(b) व्यापार का स्वामी (Proprietor)
वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह जो व्यापार प्रारम्भ करता है तथा व्यापार के संचालन के फलस्वरूप होने वाले लाभ-हानि का अधिकारी होता है, व्यापार का स्वामी कहलाता है।
3. पेशा (Profession)
पेशा में अभिप्राय जीविकोपार्जन के ऐसे कार्य से है जिसमें विशेष मानसिक योग्यता तथा व्यक्तिगत क्षमता रखने वाला व्यक्ति अपनी सेवा मूल्य के बदले प्रदान करता है, जैसे-डॉक्टर, वकील, इन्जीनियर आदि का कार्य।
4. पूँजी (Capital)
वह सब धनराशि (रोकड़), माल तथा सम्पत्ति जिसे लाभार्जन के उद्देश्य से व्यवसाय में लगाया जाता है, पूंजी होती है।
उदाहरणार्थ, योगेश ने ₹ 80,000 से व्यापार प्रारम्भ किया। यह धनराशि उसकी प्रारम्भिक ‘पूंजी’ हुई। एक महीने के बाद उसने ₹8,000 का माल व्यापार में और लगा दिया। इससे उसके द्वारा व्यापार में लगाई गई पूंजी बढ़कर ₹ 88,000 हो गई। पूंजी की राशि ज्ञात करने हेतु व्यापार को सभी चालू एवं स्थायी सम्पत्तियों के योग में से बाह्य देनदारियों को घटा दिया जाता है। क्योंकि ‘पूंजी’ सम्पत्तियों का बाह्य दायित्वों पर आधिक्य होता है.
पूंजी = कुल सम्पत्तियाँ – कुल बाह्य देनदारियाँ
Capital = Total Assets – Total Outside Liabilities
पूंजी को शुद्ध सम्पत्ति (Net Assets), व्यवसाय का शुद्ध मूल्य (Net Worth) तथा स्वामियों की देयता (Owner’s Equity) भी कहा जाता है।
5. सम्पत्ति (Assets)
वे सभी स्थायी तथा अस्थायी वस्तुएं सम्पत्तियाँ कहलाती हैं जिन्हें व्यवसाय के संचालन के लिए खरीदा जाता है तथा जिन पर व्यवसायी का स्वामित्व होता है, जैसे-भूमि, भवन, मशीने, फर्नीचर, रोकड, ख्याति आदि। आर० एन० एन्थोनी के शब्दों में, सम्पत्तिया वे मूल्यवान साधन है। जिनपर व्यवसाय का स्वामित्व तथा जिन्हें मुद्रा में मापी जाने वाली लागत पर प्राप्त किया गया है।” सम्पत्तियों में वह धन भी शामिल होता है जिसे अन्य व्यक्तियों से व्यवसाय को लेना है।
6. माल (Goods)
सभी वस्तुएँ जिनमे कोई व्यापारी व्यापार करता है, अर्थात् जिन्हें बेचकर लाभ कमाने के उद्देश्य से खरीदता या बनाता है ‘माल’ कहलाती है। उदाहरण के लिए, कपड़े के व्यापारी के लिए वह सभी प्रकार का कपड़ा माल होगा जो वह अपनी दुकान पर बेचता है। इसके विपरीत, यदि कोई पुस्तक-विक्रेता कुछ कपड़ा दुकान के पर्दों के लिए या कुछ कुर्सियाँ ग्राहकों के बैठने के लिए खरीदे तो इन वस्तुओं को माल नहीं कहा जायेगा क्योंकि इन्हें खरीदने का उद्देश्य इन्हें बेचकर लाभ कमाना नहीं है।
सम्पत्तियाँ तथा माल में अन्तर
सम्पत्तिया आय कमाने के लिए होती है जबकि माल का क्रय या उत्पादन लाभ पर बेचने के लिए किया जाता है।
7. आहरण या निजी व्यय (Drawings)
व्यापार का स्वामी अपने निजी प्रयोग के लिए अथवा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए जो रोकड़ (cash) या माल अपने व्यापार से निकालता है उसे ‘आहरण’ या ‘निजी व्यय’ कहा जाता है। व्यवसाय के कोषों से किया गया कोई भी निजी भुगतान ‘आहरण’ कहलाता है। रोकड़ या माल कुछ भी निकालने से व्यापार में लगी पूँजी घट जाती है।
8. दायित्व (Liabilities)
किसी व्यावसायिक संस्था द्वारा जो धनराशि अन्य व्यक्तियों, व्यापारियों तथा संस्थाओं (स्वामी को छोड़कर) को देनी होती है वह उसकी ‘देनदारियाँ’ या ‘दायित्व’ कहलाती है, जैसे― देय विपत्र ( Bills Payable), बैंक ऋण, उधार क्रय का भुगतान, बकाया वेतन या मजदूरी आदि। (दायित्व = सम्पत्तियाँ – पूँजी)
उदाहरण – रवि ने गौरव से 4.500 तथा इंडियन बैंक से 8,000 उधार लिए। इस प्रकार रवि का ₹4,500 + ₹8,000 = ₹12,500 चुकाने का दायित्व है।
9. व्यावसायिक लेन-देन या सौदा (Business Transaction)
जब कोई व्यक्ति, व्यापारी अथवा संस्था किसी अन्य व्यक्ति, व्यापारी अथवा संस्था के साथ वस्तुओं या सेवाओं का क्रय-विक्रय या विनिमय करती है, तो इस कार्य को व्यावसायिक लेन-देन या व्यवहार कहते हैं। ऐसे लेन-देन का उद्देश्य आर्थिक होता है, अर्थात् ये धन से सम्बन्ध रखते हैं, जैसे- माल खरीदना व बेचना, रुपया लेना व देना, सेवाएं प्राप्त करना या प्रदान करना, जैसे—वेतन, मजदूरी, किराया आदि का भुगतान करना तथा कमीशन का लेना व देना।
आर्थिक या व्यावसायिक लेन-देन या व्यापारिक व्यवहार निम्न प्रकार के हो सकते हैं
- नकद या रोकड़ी लेन-देन (Cash Transaction)– जब वस्तुओं तथा सेवाओं का क्रय-विक्रय नकद होता है तो ऐसे लेन-देन को नकद लेन-देन कहते हैं।
- उधार लेन-देन (Credit Transaction)– यदि किसी लेन-देन में भुगतान को भविष्य के लिए स्थगित कर दिया जाता है तो ऐसे सौदे को ‘उधार लेन-देन’ कहते हैं।
10. क्रय (Purchases)
‘क्रय’ शब्द का प्रयोग केवल उस माल को खरीदने के लिए किया जाता है जिसका उस व्यवसाय में व्यापार किया जाता है। उदाहरणार्थ, विक्रय के उद्देश्य से निर्मित माल (finished goods) को खरीदना अथवा उत्पादों के नर्माण हेतु कच्चा माल खरीदना ‘क्रय’ कहलाता है।
क्रय दो प्रकार का होता है—
(i) नकद क्रय (Cash Purchases)– जब खरीदे गए माल का भुगतान खरीदते समय ही कर दिया जाता है तो इसे ‘नकद क्रय’ कहते हैं।
(ii) उधार क्रय (Credit urchases)– जब माल उधार खरीदा जाता है तो इसे ‘उधार क्रय’ कहते हैं। ‘क्रय’ शब्द में नकद और उधार दोनों प्रकार के क्रयों को शामिल किया जाता है।
नोट- सम्पत्तियों के खरीदने को ‘क्रय’ में शामिल नहीं किया जाता क्योंकि इन्हें प्रयोग करने के लिए खरीदा जाता है।
11. क्रय वापसी या बाह्य वापसी (Purchases Returns or Returns Outward)
यदि खरीदे गए माल में से कुछ माल विक्रेता को वापिस कर दिया जाता है तो इस प्रकार से वापिस किए गए माल को ‘क्रय वापसी’ या ‘बाह्य वापसी’ कहते हैं। माल को वापिस करने के कई कारण हो सकते हैं, जैसे— माल का खराब होना, माल का ऑर्डर से अधिक होना इत्यादि।
नोट– शुद्ध क्रय (Net Purchases) की गणना करने के लिए क्रय में से क्रय वापसी को घटाया जाता है।
12. विक्रय (Sales)
एक व्यापारी द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य से जो माल बेचा जाता है उसे ‘विक्रय’ कहते हैं। क्रय की भाँति विक्रय भी दो प्रकार का होता है-
(i) नकद विक्रय (Cash Sales) – जब व्यापारी को अपने बिके हुए माल का भुगतान तुरन्त मिल जाता है तो इसे ‘नकद विक्रय’ कहते हैं।
(ii) उधार विक्रय (Credit Sales) – साख के आधार पर या उधार बेचा गया माल ‘उधार विक्रय’ कहलाता है।
नोट– विक्रय में किसी ऐसी स्थायी सम्पत्ति की बिक्री को शामिल नहीं किया जाता जिसे प्रयोग के लिए खरीदा गया हो।
13. विक्रय वापसी या आन्तरिक वापसी (Sales Returns or Returns Inward)
बेचे गए माल का वह भाग जिसे क्रेता किसी कारणवश विक्रेता को वापिस कर देता है “विक्रय वापसी’ या ‘आन्तरिक वापसी’ कहलाता है। क्रेता द्वारा माल कई कारणों से वापिस किया जा सकता है, जैसे- माल का नमूने या ऑर्डर के अनुसार न होना, माल का क्षतिग्रस्त होना आदि।
नोट– शुद्ध विक्रय (Net Sales) को गणना हेतु विक्रय में से विक्रय वापसी को धटाकर दर्शाया जाता है।
14 प्रमाणक (Vouchers)
माल के क्रय-विक्रय या धन के लेन-देन को प्रमाणित करने के लिए जो लिखित प्रपत्र (documents) तैयार किए जाते हैं उन्हें ‘प्रमाणक’ कहते हैं, जैसे- रसीद, बीजक, कैश मेंमो आदि। पुस्तकों में व्यावसायिक लेन-देन के लेखे प्रमाणको के आधार पर ही किए जाते हैं।
प्रमाणक दो प्रकार के होते है-
- ऋणी प्रमाणक (Debit Voucher) – जिस प्रमाणक की सहायता से खातों के डेबिट पक्ष में लिखा जाता है उसे ऋणी या डेविट प्रमाणक कहते हैं।
- धनी प्रमाणक (Credit Voucher)- जिस प्रमाणक के आधार पर क्रेडिट पक्ष में प्रविष्टि की जाती है उसे धनी या क्रेडिट प्रमाणक कहते हैं।
15. कमीशन या वर्तन (Commission)
अनेक व्यापारी अपने माल को बिक्री बढ़ाने के लिए प्रतिनिधियों (agents) या मध्यस्थों की सेवाओं का उपयोग करते हैं तथा उनकी सेवाओं के प्रतिफल के रूप में जो धनराशि उन्हें प्रदान करते हैं उसे कमोशन या वर्तन कहते हैं। प्रायः प्रतिनिधियों को कमीशन का भुगतान उनके द्वारा बेचे गए माल के विक्रय-मूल्य पर कुछ प्रतिशत के रूप में किया जाता है।
16. रहतिया या स्कन्ध या स्टॉक (Stock or Inventory)
रहतिया या स्टॉक शब्द का आशय उस माल से है जो किसी निश्चित तिथि को (प्रायः हिसाबी वर्ष के अन्त में) बिना बिका रह जाता है। स्टॉक (रहतिया) के मूल्यांकन के लिए गोदाम में रखे हुए बिना बिके माल की पूरी सूची तैयार की जाती है और माल की मात्रा के साथ उसका मूल्य भी लिखा जाता है। स्टॉक का मूल्यांकन लागत मूल्य या बाजार मूल्य में जो भी कम हो उस पर किया जाता है।
स्टॉक दो प्रकार का होता है–
(i) प्रारम्भिक स्टॉक
(ii) अन्तिम स्टॉक
व्यापारी के पास किसी हिसाबी वर्ष के अन्त में जो माल बिना बिका रह जाता है, वह ‘अन्तिम स्टॉक या रहतिया’ (Closing Stock) कहलाता है। यही बिना बिका हुआ माल अगले वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में ‘प्रारम्भिक रहतिया या स्टॉक’ (Opening Stock) कहलाता है। उदाहरण – मान लीजिए 31 मार्च, 2016 को रेखा के पास ₹9,000 का माल बिना बिका हुआ रह गया। 31 मार्च, 2016 को यह राशि (₹9,000) अन्तिम हतिया तथा अप्रैल, 2016 को प्रारम्भिक रहतिया कहलायेगी।
17. छूट या कटौती (Discount)
छूट एक प्रकार का प्रलोभन है जो किसी व्यापारों द्वारा अपने ग्राहको को दिया जाता है। छूट का उद्देश्य माल की बिक्री को बढ़ाना अथवा शीघ्र भुगतान प्राप्त करना होता है। छूट को ‘बट्टा‘ या ‘कटौती‘ कहते हैं। संक्षेप मे विक्रेता द्वारा अपने ग्राहक को माल के मूल्य में जो रियायत दी जाती है उसे छूट’ कहते है।
छूट के प्रकार (Kinds of Discount)
व्यापारी अपने ग्राहकों को प्रायः निम्न प्रकार की छूट देते हैं
(i) व्यापारिक छूट (Trade Discount)
यह एक प्रकार की परम्परागत छूट होती है जो व्यापार की प्रथा के अनुसार व्यापारी द्वारा माल बेचते समय स्वतः काट दी जाती है, चाहे बिक्री नकद की जा रही हो अथवा उधार यह छूट सभी ग्राहको को दी जाती है तथा यह छूट वस्तु के अंकित मूल्य पर दी जाती है।
(ii) नकद छूट (Cash Discount)
यह छूट उन ग्राहको को दी जाती है जो माल के मूल्य का भुगतान एक निश्चित तारीख पर या उससे पहले कर देते हैं। ऐसी छूट ग्राहक को शीघ्र भुगतान करने हेतु प्रेरित करने के लिए दी जाती है। इस छूट का लेखा हिसाब-किताब की पुस्तकों में किया जाता है। बीजक में नकद छूट का उल्लेख सामान्यतः शर्त के रूप में तो कर दिया जाता है किन्तु इसे बीजक के कुल मूल्य में से घटाया नहीं जाता। ऐसी छूट प्राय: कुल भुगतान के प्रतिशत में होती है।
(iii) विशेष छूट (Special Discount)
कुछ व्यापारियों द्वारा यह छूट अपने स्थायी या पुराने ग्राहकों को दी जाती है। ऐसी छूट को देने का उद्देश्य बिक्री को बढ़ाना तथा ग्राहकों को स्थायी बनाना होता है। ऐसी छूट प्राय: नये ग्राहकों को नहीं दी जाती। विशेष छूट को पुस्तकों में लिखा जाता है।
18. जीवित स्कन्ध या पशुधन (Live-stock)
किसी व्यवसाय, जैसे- सर्कस में सम्पत्ति के रूप में जिन जीवित पशुओं, बैल, घोड़े आदि का प्रयोग किया जाता है उन्हें ‘जीवित स्कन्ध’ कहा जाता है।
19. मृत स्कन्ध (Dead-stock)
व्यवसाय के संचालन में जिन सम्पत्तियों का प्रयोग स्थायी रूप से निरन्तर किया जाता है। उन्हें ‘मृत स्कन्ध’ कहते हैं, जैसे – भूमि, भवन, मशीनरी, फर्नीचर, मोटर गाड़ियाँ इत्यादि। यह ध्यान रहे कि मृत स्कन्ध से अभिप्राय बेकार सम्पत्तियों से बिल्कुल नहीं होता।
20. ऋण (Loan)
कोई व्यवसायी अपने व्यवसाय के संचालन हेतु किसी व्यक्ति, संस्था या बैंक से जो धनराशि उधार लेता है उसे ‘ऋण’ कहा जाता है। ऐसी राशि का प्रयोग उत्पादक तथा अनुत्पादक दोनों प्रकार के कार्यों में किया जा सकता है।
21. ऋणी या देनदार (Debtor)
जिस व्यक्ति अथवा फर्म पर व्यापारों का कुछ रुपया बाकी रहता है वह व्यापार का देनदार या ऋणी कहलाता है। यदि किसी ने व्यापारी से उधार माल खरीदा है या धनराशि उधार ली है तो वह व्यापार का ऋणी या देनदार कहलायेगा।
22. लेनदार या ऋणदाता (Creditor)
जिस व्यक्ति, फर्म या कम्पनी से व्यापारी ने उधार माल खरीदा है या नकद धनराशि उधार ली है वे व्यापार के लेनदार होते हैं। यह उल्लेखनीय है कि लेनदार या ऋणदाता व्यापार के दायित्व होते हैं और उन्हें आर्थिक चिट्ठे के दायित्व पक्ष में ‘चालू दायित्व’ शीर्षक के अन्तर्गत दर्शाया जाता है।
23. बैंक अधिविकर्ष (Bank Overdran)
कभी-कभी बैंक अपने सम्मानित ग्राहक को उसके द्वारा बैंक में जमा की गई धनराशि से अधिक राशि निकालने की सुविधा प्रदान करता है। जमा राशि निकाली गई राशि का आधिक्य (दोनों राशियों का अन्तर) ही ‘बैंक अधिविकर्ष’ कहलाता है। ऐसी राशि (अधिविकर्ष) पर बैंक ग्राहक से ब्याज भी वसूल करता है.
24. अप्राप्य या अशोध्य ऋण (Bad Debis)
वे धनराशियाँ जो किसी कारण वसूल नहीं हो पातीं तथा भविष्य में भी उनके बसूल होने की कोई आशा न हो, ‘अप्राप्य या डूबत या अशोध्य ऋण कहलाती है। ऐसी राशियाँ व्यापार की हानि होती है।
25. खाता (Account)
जब किसी वस्तु सम्पत्ति, आय व्यय सेवा या व्यक्ति से सम्बन्धित सौदे छाँटकर एक स्थान पर लिख लिये जाते हैं तो वह उस वस्तु, सम्पत्ति, सेवा या व्यक्ति विशेष का ‘खाता’ कहलाता है। संक्षेप में, एक खाता किसी मद से सम्बन्धित सभी लेन-देनो का लेखा होता है।
खाते तीन प्रकार के होते हैं
(i) व्यक्तिगत खाते
(ii) वास्तविक या साम्पत्तिक खाते
(iii) अवास्तविक या नाममात्र के खाते
इनका विस्तृत अध्ययन ‘रोजनामचा’ नामक अध्याय में किया गया है।
26. लेखे की पुस्तकें (Books of Accounts)
ऐसी पुस्तके (बहियाँ) या रजिस्टर जिनमें व्यावसायिक लेन-देनो को लिखा जाता है ‘लेखे की पुस्तके कहलाती है, जैसे- रोजनामचा, खाताबही रोकड़ बही, सहायक बहियाँ इत्यादि।
27. लेखा प्रविष्टि (Entry)
किसी सौदे अथवा व्यापारिक लेन-देन को लेखा-पुस्तको में नियमबद्ध ढंग से लिखने के कार्य को ‘लेखा करना’ या प्रविष्टि करना कहते हैं।
28. लेखा-अवधि (Accounting Period)
लेखा-अवधि से अभिप्राय सामान्यतः उस 12 माह की अवधि से है जिसमें व्यापारी अपने लेन-देनों को पुस्तकों में लिखता है तथा अवधि की समाप्ति पर खातो को बन्द करता है। संशोधित आयकर अधिनियम के अन्तर्गत प्रत्येक व्यवसाय के लिए। अप्रैल से अगले वर्ष 31 मार्च तक की अवधि को लेखांकन अवधि मानना अनिवार्य कर दिया गया है।
29. ऋणी तथा धनी अथवा नाम व जमा (Debit and Credit)
‘डेविट’ को हिन्दी में ऋणी तथा ‘क्रेडिट’ को धनी कहते हैं। दोहरा लेखा प्रणाली में प्रत्येक लेन-देन को दो रूपों या पक्षों में लिखा जाता है – (i) डेबिट (Debit) या ऋणी या नाम, तथा (ii) क्रेडिट (Credit) या धनी या जमा इसलिए प्रत्येक खाते के दो पक्ष होते हैं – (i) डेबिट तथा (ii) क्रेडिट खाते का बायाँ भाग ‘डेविट’ तथा दाहिना भाग ‘क्रेडिट’ कहलाता है।
30. नाम शेष तथा जमा शेष (Debit Balance and Credit Balance)
जब किसी खाते के डेबिट पक्ष का योग क्रेडिट पक्ष से अधिक होता है तो अन्तर की राशि को नाम शेष कहते हैं, जैसे-रोकड़ खाते (Cash A/c) का शेष। इसके विपरीत, जब किसी खाते के क्रेडिट पक्ष का योग डेबिट पक्ष के योग से अधिक होता है तो अन्तर की राशि को जमा शेष कहते हैं, जैसे विक्रय खाते (Sales A/c) का शेष.
31. आगम (Revenue)
माल और सेवाओं के विक्रय से प्राप्त हुई कुल राशि को ‘आगम’ कहते हैं। इसमें किराया, कमीशन, ब्याज, लाभांश आदि से प्राप्त राशि भी शामिल होती है। आगम के रूप में प्राप्त होने वाली राशि नियमित रूप से प्राप्त होने वाली प्रकृति की होनी चाहिए। सम्पत्तियों की बिक्री से प्राप्त रकम अथवा उधार ली गई धनराशि को ‘आगम’ नहीं कहा जाता।
(32) व्यय ( Expenses)
आगम की प्राप्ति के लिए प्रयोग की गई वस्तुओं एवं सेवाओं की लागत को ‘व्यय’ कहते हैं। व्यय के परिणामस्वरूप व्यापारी (स्वामी) की पूँजी में कमी होती है। ब्याज, किराया, मजदूरी, वेतन, कमीशन, भाड़ा आदि के रूप में किए गए भुगतान व्यय के कुछ उदाहरण हैं।
व्यय को निम्न दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है
(i) पूँजीगत व्यय (Capital Expenditure) – कोई भी ऐसा खर्च जो किसी स्थायी सम्पत्ति को खरीदने अथवा उसके मूल्य में वृद्धि करने के लिए किया जाता है ‘पूंजीगत व्यय’ कहलाता है, जैसे – भवन, संयंत्र, फर्नीचर आदि का क्रय। ऐसा व्यय दीर्घकाल तक लाभ प्रदान करता है; अत: इसे सम्पत्तियों में लिखा जाता है।
(ii) आयगत व्यय ( Revenue Expenditure) – कोई भी ऐसा व्यय जिसका समस्त लाभ एक लेखांकन-अवधि में ही प्राप्त हो जाता है ‘आयगत व्यय’ कहलाता है। सभी आयगत खर्चों को व्यापारिक एवं लाभ-हानि खाते में डेबिट किया जाता है।
33. लागत (Cost)
किसी व्यवसाय में किन्हीं वस्तुओं तथा सेवाओं को प्राप्त करने के बदले दिए गए साधनों की राशि को ‘लागत’ कहते हैं। ‘लागत’ व्यय (वास्तविक या वैचारिक) की वह राशि है जो एक निश्चित वस्तु अथवा क्रिया पर किया गया हो अथवा आरोप्य (attributable) हो। उदाहरणार्थ, मशीनरी की लागत में मशीनरी का क्रय मूल्य, भाड़ा तथा इसकी स्थापना के व्यय भी शामिल किए जायेंगे।
व्यय की गई राशि वास्तविक (actual) अथवा वैचारिक (notional) हो सकती है। उदाहरणार्थ, कच्चे माल पर खर्च की गई राशि वास्तविक व्यय है। वैचारिक व्यय उसे कहते हैं जिसका वास्तव में भुगतान तो नहीं किया जाता किन्तु फिर भी उसे व्यय मान लिया जाता है, जैसे – स्वयं की पूँजी पर ब्याज, स्वयं के भवन का किराया आदि।
34. आय (Income)
आगम में से व्यय को घटाकर जो राशि शेष बचती है उसे ‘आय’ कहा जाता है। उदाहरणार्थ, किसी समयावधि में कुल विक्रय मूल्य ₹9 लाख है, बेचे गए माल की कुल लागत ₹6 लाख है तो ₹9 लाख को आगम कहा जायेगा, ₹6 मे लाख को व्यय कहेंगे तथा शेष ₹ 3 लाख आय होगी। (Income= Revenue – Expenses)
आय, आगम से भिन्न होती है। बेचे गए माल के कुल विक्रय मूल्य को ‘आगम’ (Revenue) कहते हैं। बेचे गए माल की लागत को ‘व्यय’ कहते है। यदि व्यय से आगम अधिक है तो आगम एवं व्यय के अन्तर को ‘आय’ कहते हैं। (आय= आगम – व्यय) आय से सम्पत्तियों के मूल्य तथा व्यवसाय के स्वामी की पूंजी में वृद्धि होती है।
35. कुल बिक्री या आवधिक बिक्री (Turn Over)
एक निश्चित अवधि में व्यापारी द्वारा नकद तथा उधार बेचे गए माल के योग को आवधिक बिक्री’ कहते हैं।
36. सकल लाभ (Gross Profit)
किसी व्यावसायिक संस्था के एक लेखांकन अवधि के माल के विक्रय मूल्य के विक्रय लागत (cost of sales) पर आधिक्य को सकल लाभ कहते हैं।
37. शुद्ध लाभ (Net Profit)
व्यापार में हुए सकल लाभ की राशि में से सभी व्यापारिक व्ययों को घटाने के बाद शेष राशि ‘शुद्ध लाभ’ कहलाती है।
38 मूल्य ह्रास (Depreciation)
स्थायी सम्पत्तियों के मूल्य में प्रयोग, समय, कीमत में परिवर्तन, नए आविष्कार आदि के कारण जो कमी आती है उसे ‘मूल्य ह्रास’ कहते हैं।
39. हानि (Loss)
किसी समयावधि में व्यवसाय से प्राप्त समस्त आगम से यदि व्यय अधिक होते हैं तो दोनों की अन्तर- राशि को ‘हानि’ कहते हैं। [Loss = Expenses – Revenue]
व्यय तथा हानि में अन्तर – यहाँ यह उल्लेखनीय है कि व्यय, हानि से भिन्न होता है। व्यय करने से आगम की प्राप्ति होती है। किन्तु हानियों (अग्नि, चोरी, बाढ़ या दुर्घटना से हानि) से आगम की प्राप्ति नहीं होती। उदाहरणार्थ, कार का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना ‘हानि’ है, किन्तु कार का ह्रास व्यय है।
40. दिवालिया (Insolvent)
एक ऐसा व्यवसायी (businessman), जिसके दायित्व उसकी सम्पत्तियों की तुलना में अधिक हो और वह उन दायित्वों का भुगतान करने में असमर्थ हो, दिवालिया कहलाता है। ऐसी स्थिति में व्यवसायी की सम्पत्तियाँ उसके दायित्वों से कम होती है।
41. शोधक्षम (Solvent)
ऐसा व्यवसायी जो अपनी देनदारियों (liabilities) का पूरा-पूरा भुगतान करने में समर्थ है शोधक्षम कहलाता है. सोधक्षम कहलाता है।
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